◼️नेशनल हाईवे से महत 3 किमी दूर धनगोल गांव को जोड़ती कच्ची सड़क में बनी एक पुलिया करीब पांच साल पहले ढह गई थी।
◼️50 परिवारों तक ना तो एंबुलेंस पहुंच पाती थी और ना ही दुपहिया वाहन से नेशनल हाईवे तक पहुंचा जा सकता था।

बीजापुर एक्सप्रेस >> राजेश झाड़ी। विकासखंड मुख्यालय भोपालपट्नम को जोड़ती नेशनल हाईवे से महत 3 किमी दूर धनगोल गांव को जोड़ती कच्ची सड़क में बनी एक पुलिया करीब पांच साल पहले ढह गई थी। जिसके चलते बारिश के दिनों में उफनते नाले से गांव वालों की मुश्किलें बढ़ जाती थी। 50 परिवारों तक ना तो एंबुलेंस पहुंच पाती थी और ना ही दुपहिया वाहन से नेशनल हाईवे तक पहुंचा जा सकता था। बारिश के मौसम में पुलिया के अभाव में गांव का जिला मुख्यालय से संपर्क लगभग टूट ही जाता था। बहरहाल धनगोल में ग्रामीणों की आपबीती और मौजूदा हालात सिस्टम को जरूर मुंह चिढ़ा रहे हैं, लेकिन ग्रामीणों का यह प्रयास दशरथ मांझी के उस साहस से प्रेरित नजर आती हैं, जिसमें एक अकेल शख्स ने पहाड़ सीना चीरकर रास्ता निकाला था।
बिहार के दशरथ मांझी पर बनी फिल्म मांझी द माउंटेन मेन आपने जरूर देखी होगी। फिल्म के आखिरी दृश्य में दशरथ कहते है कि भगवान के भरोसे ना बैठे, क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो। फिल्म के इस डॉयलाग से ठीक इत्तफाक रखती है बीजापुर के धनगोल पंचायत की कहानी। जहां प्रशासन से एक अदद पुलिया की फरियाद करते थक चुके ग्रामीण अब प्रशासन से उम्मीद से छोड़ बारिश में पेश आने वाली कठिनाईयों से बचने श्रमदान के बूते जुगाड़ की पुलिया को आकार देने में व्यस्त हैं।

100-100 रुपए चंदा कर, बना दिया जुगाड़ का पुल
सहमति बनी और खुदाई के लिए टैक्टर आदि मशीनरी को काम पर लगाने गांव वालों ने 100-100 रूपए चंदा जोड़ा। वैकल्पिक व्यवस्था में ध्वस्त पुलिया पर रपटे की योजना बनाई गई। जिसमें गांव वालों ने इको फ्रेंडली तकनीक को आजमाया। इलाके में ताड़ वृक्षों की बहुलता के मद्देनजर वृक्ष के तनों के सहारे रपटे का आकार देना शुरू किया। गांव वालों का दावा है कि तीन दिन के भीतर उनकी जुगाड़ की पुलिया बनकर तैयार हो जाएगी। हालांकि यह उतनी टिकाउ नहीं होगी कि इस पर से टैक्टर या चार पहिया वाहन गुजर सके। एक मोटरसाइकिल और पैदल चलकर ही लोग पार हो पाएंगे।
कई दफ्तर के काटे चक्कर, कई जनप्रतिनिधियों से लगाई थी गुहार
गांव के सरपंच नागैया समेत ग्रामीणों का कहना है कि परेशानी से निजात पाने दफतरों से लेकर जनप्रतिनिधियों से गुहार लगाते रहें, लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी। चुनाव के वक्त भी राजनीतिक दलों के प्रत्याशी, कार्यकर्ता पहुंचे, उनसे बारम्बार मिन्नतें की गई, भरोसा मिला कि चुनाव जीतते पहली प्राथमिकता पुलिया का निर्माण कराया जाएगा। चुनाव खत्म हो गए, लेकिन आश्वासन के सिवाए उन्हें हासिल कुछ नहीं हुआ। सरकारी दफतर से लेकर विधायक तक मिन्नतें कर जब हासिल कुछ नहीं हुआ तो गांव वालों का सब्र टूट गया। तय हुआ कि प्रशासन हो चाहे नेता, इनसे उम्मीद रखने से बेहतर अपनी परेशानी का हल खुद निकालने का निर्णय गांव वालों ने लिया।